कल जो था, न जाने कब युगान्तर बन गया।
दोष किसका था, ये न जानता था कोई।
पङ गये विरान ये घर, हो गयी कुछ रात सी।
कल सुबह होगी, छोङ दी ये आश भी।
""कुछ नही बिगङा हे अब भी,
कहनी इतनी सी बात थी।""
पर हम सब तो मौन थे, टल गयी ये बात भी।
हो चली फिर देर कुछ यू, खो गये हम खुद मे ही।
आ गयी फिर ॠतु बंसत की, सूखे पत्ते खो गये।
कुछ पूरानी डालीयो पर नये कोपल आ गये,
ओर कुछ पूरानी डालीया फिर न हो सकी हरी।
हम मोन थे, स्तब्ध थे, काल खण्ड बदलता रहा।
खो चुकी थी आन अपनी, पहचान अपनी ये धरा।
खो गया था इतिहास मेरा, जो मन के पन्नो पर था छपा।
गॉव मेरा मौन था, पित्र मेरे मौन थे।
क्या बदलने को चले थे, क्या बदलकर रख दिया।
मै बङा हूँ या वो बङा, इसमे फस के रह गये।
""कुछ नही बिगङा हे अब भी,
कहनी इतनी सी बात थी।""
पर हम सब तो मौन थे, टल गयी ये बात भी।
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