"संयुक्त राष्ट्र संघ और आतंकवाद"
संयुक्त राष्ट्र संघ 200 से अधिक देशों के बुद्धिजीवियों का संगठन है, और शायद यही इसकी आतंकवाद के ऊपर एक मत ना हो पाने की सबसे बड़ी वजह है। एक कहावत है, बहुत सारे रसोईया मिलकर एक अच्छा सा सूप नहीं बना सकते, यह बिल्कुल सही बात है। हम सभी यह समझने को तैयार नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र केवल और केवल डिप्लोमेसी का मंच बन कर रह गया है। 1945 में जब से संयुक्त राष्ट्र संघ बना, तब से आज तक ना तो ताकतवर देशों को अपनी मनमानी करने से रोक पाया, ना ही आतंकियों को आतंक फैलाने से। कई वर्ष तो यह मानने में लग गए कि आतंकवाद नाम की कोई विचारधारा पनप रही है।
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है, कि 200 देश मिलकर यह समझने को तैयार नहीं है कि आखिर आतंकवाद की परिभाषा क्या है। मैं आपको एक सलाह देता हूँ, इन सभी देशों के 12वीं पास एक-एक बच्चे को बिना कुछ बताए दो लाइन में आतंकवाद को परिभाषित करने को कहें और मैं आपको बता सकता हूँ, सब का एक उत्तर होगा, कि यह मानवता को नष्ट करने वाली व कट्टरता को फैलाने वाली एक सोच है।
जब तक आप अपने फायदे के लिए ऐसी संस्थाओं का उपयोग करते रहेंगे, तब तक हम मानवता के लिए जरूरी फैसले लेने में अपने आप को असमर्थ ही पाएंगे। थोड़ा समझने की कोशिश करते हैं, आखिर क्यों आतंकवाद को परिभाषित करना इतना मुश्किल है? किसी भी प्रकार की युक्ति से लोगों के बीच एक भय का माहौल बनाना ही आतंक है और वाद का अर्थ है उस विचारधारा को मानना व उसका अनुसरण करना। सीधा अर्थ है, एक विचारधारा जो सभ्य समाज में भय व संशय का माहौल पैदा कर, उस समाज को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है।
मैं अपने इस लेख के माध्यम से इन सभी बुद्धिजीवियों को यह बताना चाहता हूँ, कि आप उस दिन का इंतजार मत करें, जब यह सोच आपके देश में दस्तक दे चुकी होगी। एक सकारात्मक पहल का लाभ सभी को मिलता है, उसी प्रकार नकारात्मक सोच का असर भी सभी को झेलना पड़ सकता है।
हम सबको लगता है कि संयुक्त राष्ट्र इसलिए बना है, ताकि तीसरा विश्व युद्ध ना हो पाए। परन्तु हम लोग ये नहीं देख पा रहे हैं कि पूरे विश्व में पिछले चार दशक से आतंकवाद के रूप में तीसरा विश्व युद्ध लड़ा जा रहा है। जिसमें अभी तक जान और माल का उतना ही नुकसान हो चुका है, जितना किसी बड़ी लड़ाई में होना संभव है। यह युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है, ना जाने कितना और नुकसान हम सभी को हो सकता है। सभी बुद्धिजीवियों को यह समझना होगा कि कुछ देशों को अपने हथियार बेचने की होड़ है, और कुछ देशों को अपने आप को शक्तिशाली साबित करने की होड़ है। इन सभी कामों में एजेंट की तरह पैदा किए जा रहे हैं आतंकी। आपके पास एक दशक और है, वरना ना तो यह चर्चा रहेगी कि कैसे आतंकवाद को रोका जाए ,ना इन संस्थाओं के ऊपर आतंकियों की मार झेल रहे देशों, उनके सैनिकों वा लोगों का विश्वास रहेगा।
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